Jai Chitra Gupt JI

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Sunday, May 6, 2012

Navratri Katha By Mona Srivastava and Alok Srii


Navratri Katha

The festival of Navratri is celebrated twice in India. Once in the Hindi month of Chaitra which is the month of March-April  and again in the month of Ashwin i.e. September-October according to the English calendar. It is a nine days long festival in which the Goddess Durga is worshipped in nine different forms. People all over the country celebrate this festival with immense joy and enthusiasm. Devotees of Maa Durga observe a rigorous fast of nine days during this period. This festival in Hindu religion is considered to be an eternally enlightening festival. Like most of the Hindu festivals this worship also involves reading or hearing Katha or stories related to the festival. Explore an interesting story about Navratri here, in this article.


Navaratri Story
The story associated with Navratri can be found in various Hindu religious texts like Markandeya Purana, Vamana Purana, Varaha Purana, Shiva Purana, Skanda Purana, Devi Bhagavatam and Kalika Purana. The story of Navratra is the symbolic message of the fact that however glorious and powerful the evil become, at the end it is the goodness that wins over all of the evil. The story is associated with Maa Durga and Mahisasura, the buffalo headed demon.

The story begins from the life of two sons of Danu called Rambha and Karambha who performed austerities by to gain extreme power and authority. When their prayers became deeper and austerities became exceptional, the King of the heaven God Indra got perturbed. Out of fear, he killed Karambha. Rambha, who came to know about his brother’s death, became more stubborn to win over the Gods. He increased the intensity of his austerities and finally got several boons from gods like great brilliance, beauty, invincibility in war. He also asked a special wish of not being killed by either humans or Gods or Asuras.

He then considered himself immortal and started freely roaming in the garden of Yaksha where he saw a female-buffalo and fell in love with her. To express his love, Rambha disguised in the form of a male-buffalo and copulated with the female buffalo. However, soon after that a real male buffalo discovered Rambha mating with the she-buffalo and killed him. It was due to Rambha’s inflated ego that killed him, out of which he has not asked his death to be spared from the wrath of animals. As the pyre of Rambha was organized, the female-buffalo, who was copulated with him jumped into the funeral pyre of Rambha to prove her love. She was pregnant at that time. Thus, demon came out of the with the head of a buffalo and human body and he was named Mahisasura (the buffalo headed demon).

Mahishasura was extremely powerful. He defeated the gods and the demons and acruierd power over the entire world. He even won over the heaven and threw devtas outside it. He captured the throne of Indra and declared himself to be the the lord of the gods. The gods led by Brahma approached Vishnu and Shiva and evaluated them of the situation. In order to save the Gods, the three supreme deities emerged a light of anger, which combined to the take the shape of a terrible form and this was Durga. All the gods then granted this Goddess of power with all the supreme weapons they had. This is why; Durga is called the brilliance of all the Gods.

When the goddess was seen by Mahishasura, he was mesmerized by her beauty. Her then fell in love with her and proposed to marry her. The goddess said she will marry him, if he defeated her in the battle. Then began a scary and terrible battle between both of then which continued for nine days. Finally, on the last day, Durga took the form of Chandika and stood over the chest of Mahishasura and smashed him down with her foot. She then pierced his neck with her spear and cut off his head off with her sword. It is the day when Vijayadashmi is celebrated.







(indif.com)

दुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी
नमो नमो अंबे दुःख हरनी

निरंकार है ज्योति तुम्हारी
तिहु लोक फैली उजियारी

शशि ललाट मुख महाविशाला
नेत्र लाल ब्रुकुति विकराला

रूप मातु को अधिक सुहावे
दरश करत जन अति सुख्पावे

तुम संसार शक्ति ले किना
पालन हेतु अन धन दिना

अन्नपूर्णा हुई जग पाला
तुम ही आदि सुंदरी बाला

प्रलयकाल सब नाशन हारी
तुम गौरी शिव शंकर प्यारी

शिव योगी तुम्हे गुन गावे
ब्रह्म विष्णु तुम्हे नित ध्यावे

रूप सरस्वती का तुम धारा
देत सुबुद्धि ऋषि मुनि उबारा

धारा रूप नरसिंह को अम्बा
प्रगट भई फाड़ कर खम्बा

रक्षा कर प्रहलाद बचायो
हिरान्यकुश को स्वर्ग पठायो

लक्ष्मी रूप धरो जग माहि
श्री नारायण अंग समाही

शिर्सिंधू में करत विलासा
दयासिन्धु दीजे मन आसा

हिंगलाज में तुम्ही भवानी
महिमा अमित न जात बखानी

मातंगी धूमावती माता
भुन्वेंश्वरी बगला सुख दाता

श्री भैरव तारा जग तारिणी
षिन भाल भावः दुःख निवारिणी

केहर वाहन सोह भवानी
लंगूर वीर चलत अगवानी

कर में खप्पर खडग विराजे
जाको देख काल डर भाजे

सोहे अस्त्र और त्रिशूला
जाते उठत शत्रु हिय शूला

नगरकोट में तुम्ही बिराजत
तिहु लोक में डंका बाजत

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे
रक्त बीज शंखन संहारे

महिषासुर नरप अति अभिमानी
जेहि एजी भार माहि अकुलानी

रूप कराल कलि को धरा
सेन सहित तुम तीही संहार

परी भीड़ संतन पर जब जब
भई सहाय मातु तुम तब तब

अमर पुरी औरों सब लोक
तब महिमा सब रहे अशोका

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी
तुम्हे सदा पूजे नर नारी

प्रेम भक्ति से जो जस गावे
दुःख दारिद्र निकट नही आवे

ध्यावे तुम्हे जो नर मन लाइ
जनम मरण ते छुटी जाई

जोगी सुर-मुनि कहत पुकारी
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी

शंकर आचारज ताप कीनो
काम अरो क्रोध जीती सब लीनो

निशदिन ध्यान धरो शंकर को
काहू काल नही सुमिरो तुमको

शक्ति रूप को मर्म न पायो
शक्ति गयी तब मन पछतायो

शरणागत हुई कीर्ति बखानी
जय जय जय जगदम्ब भवानी

भई प्रसन आदि जगदम्बा
दी शक्ति नही किन विलम्बा

मोको मातु कष्ट अति गेरो
तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो

आशा तृष्णा निपट सतावे
रिपु मुरख मोहि अति डर पावे

शत्रु नाश कीजे महारानी
सुमिरो इकचित तुम्हे भवानी

करो कृपा हे मातु दयाला
रिधि सीधी डे करहु निहाला

जब लगी जियो दयाफल पाऊ
तुम्हारो जस माय सदा सुनु

दुर्गा चालीसा जो कोई गावे
सब सुख भोग परम पद पावे

देविदास शरण निज जानी
करहु कृपा जगदम्ब भवानी

अंबा मां की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी,तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को । उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै । रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी । सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती । कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती, धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे । मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी । आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैंरू । बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता । भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी । मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती । श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे । कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥
ॐ जय अंबे गौरी


नवरात्रि
नवरात्रि हिंदूओं का एक प्रमुख त्योहार है. नवरात्रि संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है 9 रातें. यह त्योहार साल में दो बार आता है. एक शारदीय नवरात्रि, दूसरा है चैत्रीय नवरात्रि. परन्तु शारदीय नवरात्र का महत्व अधिक माना जाता है. नवरात्रि के नौ रातों में तीन हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ रूपों की पूजा होती है जिन्हें नवदुर्गा कहा जाता है.

शक्ति की उपासना
शक्ति की उपासना का पर्व शारदेय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है. सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की. तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा.
आदिशक्ति के हर रूप की नवरात्र के नौ दिनों में क्रमशः अलग-अलग पूजा की जाती है. मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है. ये सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली हैं. इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं. नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है.
ये तो आप जानते ही होंगे कि नवदुर्गा और दस महाविधाओं में काली प्रमुख हैं. भगवान शिव की शक्तियों में उग्र और सौम्य, दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविधाएं अनंत सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ हैं. दसवें स्थान पर कमला वैष्णवी शक्ति हैं, जो प्राकृतिक संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं. देवता, मानव, दानव सभी इनकी कृपा के बिना अधूरे हैं, इसलिए आगम-निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से की गई है. सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व इनकी कृपा-प्रसाद के लिए लालायित रहते हैं.
नवरात्रों में माता की पूजा का विधान
नवरात्रों के बारे में मान्यता है कि देवता भी मां भगवती की पूजा किया करते है. नवरात्रों में मां भगवती के नौ विभिन्न रुपों की पूजा की जाती है. मां भगवती को शक्ति कहा गया है. नवरात्रों में माता की पूजा करने के लिये मां भगवती की प्रतिमा के सामने किसी बड़े बर्तन में रेत भरकर उसमें जौ उगने के लिये रखे जाते हैं. इस के साथ एक पानी से भरा कलश स्थापित किया जाता है. कलश पर कच्चा नारियल रखा जाता है.
कलश स्थापना के बाद मां भगवती की अंखंड ज्योति जलाई जाती है. सबसे पहले भगवान श्री गणेश की पूजा की जाती है. उसके बाद श्री वरूण देव, श्री विष्णु देव की पूजा की जाती है इसके बाद नवग्रह की पूजा भी की जाती है.
नवरात्रों के दौरान प्रतिदिन उपवास रख कर दुर्गा सप्तशती और देवी का पाठ किया जाता है. इन दिनों में इन पाठों का विशेष महत्व है. नवरात्रि के नौ दिनों में नौ ग्रहों की शान्ति पूजा की जाती है. दुर्गासप्तशती में सात सौ महामंत्र होने से इसे सप्तशती कहते है. सप्तशती उपासना से असाध्य रोग दूर होते है. और आराधक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है.

नवरात्र पर प्रचलित कथाएं
नवरात्र पर कई कथाएं और किवदंतियां प्रचिलित हैं. इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं:

राम और रावण का चंडी पूजन
लंका-युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा. उन्होंने जा कुछ बताया उसके अनुसार चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ 108 नीलकमल की व्यवस्था की गई. वहीं दूसरी ओर रावण ने भी अमरता के लोभ में विजय कामना से चंडी पाठ प्रारंभ किया. यह बात इंद्र देव ने पवन देव के माध्यम से श्रीराम के पास पहुंचाई और परामर्श दिया कि चंडी पाठ यथासभंव पूर्ण होने दिया जाए. इधर हवन सामग्री में पूजा स्थल से एक नीलकमल रावण की मायावी शक्ति से गायब हो गया और राम का संकल्प टूटता-सा नजर आने लगा. भय इस बात का था कि देवी मां रुष्ट न हो जाएं.
दुर्लभ नीलकमल की व्यवस्था तत्काल असंभव थी, तब भगवान राम को सहज ही स्मरण हुआ कि लोग उन्हें 'कमलनयन नवकंच लोचन' कहते हैं, तो क्यों न संकल्प पूर्ति हेतु एक नेत्र अर्पित कर दिया जाए. प्रभु राम जैसे ही तूणीर से एक बाण निकालकर और अपना नेत्र निकालने के लिए तैयार हुए, तब देवी ने प्रकट होकर राम का हाथ पकड़ा और कहा- राम मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूं. इसके साथ ही देवी ने राम को विजयश्री का आशीर्वाद दिया.

देवी-महिषासुर संग्राम
नवरात्र से जुड़ी एक कथा के अनुसार देवी दुर्गा ने एक भैंस रूपी असुर अर्थात महिषासुर का वध किया था. पौराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया. उसको वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता होने लगी. देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ा. तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की. ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था.

महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और कहा जाता है कि इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं थी. इन नौ दिन देवी-महिषासुर संग्राम हुआ और अन्ततः महिषासुर-वध कर महिषासुर मर्दिनी कहलायीं. किस दिन किस रूप की करें उपासना और क्या लगाएं भोग
नवरात्र के नौ दिन देवी के विभिन्न स्वरूपों की उपासना के लिए निर्धारित हैं. ये देवियां भक्तों की पूजा से प्रसन्न होकर उनकी कामनाएं पूर्ण करती हैं. हो सके तो देवी को भोग उन चीजों का लगया जाना चाहिए जो देवी को पसंद हो. इसके पीछे यह मान्यता है कि अगर हम भगवान को उनकी पसंद की चीजों का भोग लगाते हैं तो वे बड़े ही चाव से उन व्यंजनों को ग्रहण करते हैं और उपासक को मनवांछित फल देते हैं.
प्रथम शैलपुत्री- पहले स्वरूप में मां पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में विराजमान हैं. नंदी नामक बैल पर सवार 'शैलपुत्री' के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है. शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा गया. इस दिन मंगल ग्रह की शांति कराने के लिए विशेष पूजा कराई जा सकती है. इस दिन उपवास करने के बाद माता के चरणों में गाय का शुद्ध घी अर्पित करने से आरोग्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है.
द्वितीय ब्रह्मचारिणी- दूसरी दुर्गा 'ब्रह्मचारिणी' को समस्त विद्याओं की ज्ञाता माना गया है. इनकी आराधना से अनंत फल की प्राप्ति और तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम जैसे गुणों की वृद्धि होती है. यह स्वरूप श्वेत वस्त्र पहने दाएं हाथ में अष्टदल की माला और बाएं हाथ में कमंडल लिए हुए सुशोभित है. कहा जाता है कि देवी ब्रह्मचारिणी अपने पूर्व जन्म में पार्वती स्वरूप में थीं. अगर राहु ग्रह की शान्ति करने संबन्धी कोई पूजा करना हो तो यह दिन सबसे उत्तम है. इस दिन माता ब्रह्माचारिणी को प्रसन्न करने के लिये शक्कर का भोग लगाया जाता है.
तृतीय चंद्रघंटा- शक्ति के रूप में विराजमान मां चंद्रघंटा मस्तक पर घंटे के आकार के चंद्रमा को धारण किए हुए हैं. देवी का यह तीसरा स्वरूप भक्तों का कल्याण करता है. इन्हें ज्ञान की देवी भी माना गया है. बाघ पर सवार मां चंद्रघंटा के चारों तरफ अद्भुत तेज है. यह तीन नेत्रों और दस हाथों वाली हैं. इनके दस हाथों में कमल, धनुष-बाण, कमंडल, तलवार, त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र-शस्त्र हैं. कंठ में सफेद पुष्पों की माला और शीर्ष पर रत्नजडित मुकुट विराजमान हैं. तृतीया के दिन बृहस्पति ग्रह की शान्ति के लिए पूजा कर्म करने चाहिए. इस दिन इन माता की पूजा करते समय माता को दूध या दूध से बनी मिठाई अथवा खीर का भोग माता को लगाया जाता है.
चतुर्थ कुष्मांडा- चौथे स्वरूप में देवी कुष्मांडा भक्तों को रोग, शोक और विनाश से मुक्त करके आयु, यश, बल और बुद्धि प्रदान करती हैं. यह बाघ की सवारी करती हुईं अष्टभुजाधारी, मस्तक पर रत्नजडित स्वर्ण मुकुट पहने उज्जवल स्वरूप वाली दुर्गा हैं. अपनी मंद मुस्कान से ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कुष्मांडा पड़ा. कहा जाता है कि जब दुनिया नहीं थी, तो चारों तरफ सिर्फ अंधकार था. ऐसे में देवी ने अपनी हल्की-सी हंसी से ब्रह्मांड की उत्पत्ति की. चतुर्थी के दिन अगर किसी व्यक्ति को अपना शनि शान्ति कराना हो तो यह दिन उनके लिए अच्छा है और ऐसा करके वे लोग शनि के अशुभ प्रभाव से बच सकते हैं. माता कुष्माण्डा की पूजा करने के बाद माता को इस दिन मालपुओं का भोग लगाया जाता है.
पंचम स्कन्दमाता- भगवान स्कन्द यानी कार्तिकेय की माता होने के कारण इस पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है. यह कमल के आसन पर विराजमान हैं, इसलिए इन्हें पद्मासन देवी भी कहा जाता है. इनका वाहन सिंह है. इन्हें कल्याणकारी शक्ति की अधिष्ठात्री कहा जाता है. इस दिन पूरे दिन उपवास करने के बाद माता को केले का भोग लगाया जाता है.
षष्ठी कात्यायनी- यह दुर्गा देवताओं और ऋषियों के कार्यों को सिद्ध करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुईं. उनकी पुत्री होने के कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा. देवी कात्यायनी दानवों तथा पापी जीवियों का नाश करने वाली हैं. यह सिंह पर सवार, चार भुजाओं वाली और सुसज्जित आभा मंडल वाली देवी हैं. इनके बाएं हाथ में कमल और तलवार व दाएं हाथ में स्वस्तिक और आशीर्वाद की मुद्रा है. इस दिन माता को भोग में शहद दिया जाता है.
सप्तम कालरात्रि- सातवां स्वरूप देखने में भयानक है, लेकिन सदैव शुभ फल देने वाला होता है. इन्हें 'शुभंकरी' भी कहा जाता है. 'कालरात्रि' केवल शत्रु एवं दुष्टों का संहार करती हैं. यह काले रंग-रूप वाली, केशों को फैलाकर रखने वाली और चार भुजाओं वाली दुर्गा हैं. यह वर्ण और वेश में अर्द्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती हैं. एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकड़कर दूसरे हाथ में खड्ग-तलवार से उनका नाश करने वाली कालरात्रि विकट रूप में विराजमान हैं. इस दिन साधक को पूरे दिन का उपवास करने के बाद माता को गुड़ का भोग लगाया जाता है.
अष्ठमी महागौरी- आठवें दिन महागौरी की उपासना की जाती है. इससे सभी पाप धुल जाते हैं. देवी ने कठिन तपस्या करके गौर वर्ण प्राप्त किया था. भक्तों के लिए यह अन्नपूर्णा स्वरूप हैं, इसलिए अष्टमी के दिन कन्याओं के पूजन का विधान है. यह धन, वैभव और सुख-शांति की अधिष्ठात्री देवी हैं. यह एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू लिए हुए हैं. गायन और संगीत से प्रसन्न होने वाली 'महागौरी' सफेद पर सवार हैं. इस दिन माता को भोग में नारियल का भोग लगाया जाता है.
नवंम सिद्धिदात्री- नवीं शक्ति 'सिद्धिदात्री' सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं. इनकी उपासना से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं. कमल के आसन पर विराजमान देवी हाथों में कमल, शंख, गदा, सुदर्शन चक्र धारण किए हुए हैं. भक्त इनकी पूजा से यश, बल और धन की प्राप्ति करते हैं. सिद्धिदात्री की पूजा के लिए नवाहन का प्रसाद, नवरस युक्त भोजन तथा नौ प्रकार के फल-फूल आदि का अर्पण करना चाहिए. इस तरह नवरात्र का समापन करने वाले भक्तों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है. सिद्धिदात्री देवी सरस्वती का भी स्वरूप हैं, जो श्वेत वस्त्रालंकार से युक्त महाज्ञान और मधुर स्वर से भक्तों को सम्मोहित करती हैं. नवमी के दिन चन्द्रमा की शांति के लिए विशेष रूप से पूजा की जाती है. माता की पूजा आराधना करने के बाद माता को तिल का भोग लगाना चाहिए.

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