सादगी, सेवा, त्याग, देशभक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन में अपने आपको पूरी तरह होम कर देने के गुणों को किसी एक व्यक्तित्व में देखना हो तो उसके लिए भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद (जन्म : 3 दिसंबर 1884; निधन :28 फरवरी 1963) का नाम लिया जाता है। महात्मा गाँधी ने उन्हें अपने सहयोगी के रूप में चुना था और साबरमती आश्रम की तर्ज पर सदाकत आश्रम की एक नई प्रयोगशाला का दायित्व भी सौंपा था। उनकी 125 वीं जयंती के मौके पर उनसे संबंधित कुछ प्रसंग:
राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू अत्यंत सौम्य और गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। सभी वर्ग और बाद के व्यक्ति उन्हें सम्मान देते थे। किसी के प्रति उनके हृदय में विराग नहीं था। वह विगत-दोष थे। प्रत्येक स्थिति में उनके अधरों पर खेलने वाली स्मित रेखा बनी रहती थी। सभी से प्रसन्न वदन होकर अंतर की निर्मल-भावना से ही मिलते थे। उनकी सरलता में अंदर रहने वाली ज्ञान-गरिमा भी छपी रहती थी। सहज कोई चर्चा छिड़ जाने पर ही किसी विषय की गहनता, मार्मिकता और तार्किकता प्रकट हो पाती थी।
चाहे इतिहास हो, साहित्य हो, संस्कृति हो, शिक्षा हो, राजनीति हो, भाषा शास्त्र हो, धर्म हो, वेदांत हो, वह जिस उच्चस्तर पर अपने विचार व्यक्त करते थे, उनकी महत्ता का भाव हो सकता है। स्वाभाविक सरलता के कारण वह अपने ज्ञान-वैभाव का प्रभाव प्रतिष्ठित नहीं करते थे।
गंभीर तो वह सदैव ही रहते आए हैं, परंतु राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठित होकर उन्होंने और भी अपनी सीमा निर्धारित कर ली थी, वह विषपायी थे और गरल को कंठ से नीचे उतारकर वाणी में अमृत ही बनाए रखते थे और उसी का विस्तार करते थे। जब हमारा संविधान बन रहा था किसी सदस्य के अनुचित आरोप से संतप्त हो राष्ट्रपिता के समक्ष जाकर अध्यक्षता छोड़ने की इच्छा प्रकट की थी।
तब महात्माजी ने उनसे ही कहा था कि, 'अमृत पीने वाले तो बहुत हैं, पर मेरे पास अकेले राजेंद्र बाबू ही तो जहर पीने वाले हैं। वह जहर से घबरा जाएँगे तो कौन पीएगा।' बात बहुत सच है। राजेंद्र बाबू ने नीलकंठ की तरह अनेक बार सहज भाव से जहर हलाहल पीया है, और हजम किया है।
राष्ट्रपति रहते हुए अनेक बार मतभेदों के विषम प्रसंग आए। अंतर विक्षुब्ध हुआ, परंतु परिवार में भी वह कभी प्रकाश में नहीं आया। मुझे पता है कि दो बार ऐसे प्रसंग आए हैं कि राजेंद्र बाबू अपने पद से विरक्त हो मुक्त बनने को आतुर हो गए थे। एक बार तो वह विनोबा भावे से यही परामर्श करने गए थे।
एक ओर उनके अनेक मित्र यह परामर्श देते रहे कि वह पद से मुक्त होकर स्वतंत्र हो जाएँ, दूसरी ओर स्वयं उन्हें भी यह बुरी तरह खटकता था कि इतने बड़े पद पर, राज-प्रसाद में, वैभाव से भरे हुए वातावरण में रहकर भी जब जनता के दुःख-दर्द, कष्टकथा को सुनता हूँ, और कुछ कर नहीं पाता तब मन में उथल-पुथल मच जाती है, जी चाहता है कि इस वातावरण से मुक्त होकर सीधा जनता में मिल जाऊँ।
जहाँ यह विरक्ति का कारण बन जाता था, वहाँ आंतरिक मतभेदों से भी उनके अंतर में भीषण व्यथा हो उठती थी परंतु इन सब विषम स्थितियों में भी उन्होंने अपने संयम की सीमा और गंभीरता को नहीं खोया था। सतत बारह वर्षों के निकट संपर्क में रहकर भी मैंने यही अनुभव किया कि कभी उनकी वार्ता से किसी के लिए भी अपशब्द या जरा भी बुरा लगने वाला कोई शब्द नहीं निकला।
पंडितजी के प्रति सदैव आत्मीयता और हित कामना ही अभिव्यक्त हुई। पंडितजी को शायद कभी पता भी नहीं होगा कि उनके स्वास्थ्य और यश की कामना से राजेंद्र बाबू ने अपनी ओर से कितना क्या-क्या किया, जबकि स्वयं की उपेक्षा-आलोचना होने पर भी जबान से 'उफ' नहीं निकला।
अवश्य ही उससे वह अधिक गंभीर हो गए, मन में मंथन चलता रहा और शिरोवेदना भी अनुभव की, परंतु वाणी से कोई शब्द शिकायत का नहीं निकला, अंतर से हितकामना ही की। जब सत्य और सिद्धांत की समस्या सामने आई तब अत्यंत निजी पत्र में ही वह अवश्य स्पष्ट व्यक्त की।
एक बार एक बहुत बड़े रईस और एक महाराणी ने मुझे बाबूजी के विषय में अत्यंत अकल्पनीय बात बतलाई और उसका स्रोत दिल्ली का मंत्रालय था। सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि बहुत ऊँची जगह पर भी इतने निम्न स्तर की बातें कहीं-सुनी जाती हैं।
जबकि जिस विषय को लेकर यह चर्चा की गई उसके वास्तविक रहस्य से पूरी तरह मैं परिचित था और सही तथ्य मैं जान गया था। मैंने वहाँ तो उनका समाधान कर ही दिया, किंतु मुझे यह बात बहुत खटकी। जब बाबूजी पचमढ़ी आए और मुझे स्मरण किया, तब सहसा एकांत पाकर मैंने यह चर्चा की और अनुमति चाही कि मैं अपने तौर पर इस तथ्य पर प्रकाश डालूँ।
तब बाबूजी ने कहा कि मैं यह सब सुन चुका हूँ। और मुझे इस तरह के प्रचार का कारण और स्रोत भी विदित है। पर कहने दीजिए, जब बापू (महात्माजी) पर आक्षेप करने से लोग नहीं चूकते थे, तो मैं तो बापू का सामान्य अनुयायी हूँ।
राजेंद्र बाबू अवश्य ही मित-भाषी और गंभीर प्रकृति के रहे हैं, वाणी में पूर्ण संयम रहा है। सरलता और स्वाभाविकता उनके व्यक्तिव में समा गई थी, किसी भी अवस्था में उनके मुख पर मुस्कान सदैव बनी रहती थी और वह हर किसी को मोहित कर लेती थी। यद्यपि बाबूजी की गंभीरता, उनकी वय, प्रतिष्ठा और गरिमा के अनुरूप ही थी, तथापि वे विनोद-प्रिय थे। अपने सीमित-समाज में बड़ी सरलता के साथ चुटकुले सुनाया करते थे और वे बहुत सूझ भरे एवं सामयिक होते थे। उस समय सुनने वालों के साथ ही बाबूजी खूब खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।
एक रोज बाबूजी दोपहर को खाने की टेबल पर बैठे हुए थे। हम दो-तीन व्यक्ति ही साथ में थे, बाबूजी ने बड़ा मनोरंजक संस्मरण सुनाया। वे अपने ग्राम जीरादेई से जब पटना आया करते थे, मध्य मार्ग में एक वट वृक्ष पड़ता था। वहाँ ठहरकर दाल-बाटी बनाई जाती थी और भोजन के बाद फिर पटना की ओर जाना होता था। सदैव के अनुसार एक बार उसी क्रम के अनुसार ग्राम से चलकर वट वृक्ष के निकट रुके, वहाँ दाल-बाटी बनाई गई।
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जब सारा सामान तैयार हो गया और खाने की तैयारी की जा रही थी, दो व्यक्ति दूर से आते दिखाई दिए। उनमें एक के पास छोटा 6-7 साल का बालक था। वे दोनों एक दूसरे पेड़ के निकट आकर बैठ गए। क्षण भर के बाद उनमें से एक व्यक्ति वट वृक्ष की ओर आया, और जो व्यक्ति खाना परोसने की तैयारी कर रहा था, उसको कहने लगा - मेरे साथ के बच्चे को भूख लगी है। मेरे पास एक बाटी तो है, पर एक-दो बाटी आप दे दें तो इसका काम हो जाएगा। खाने के वक्त इस तरह कोई माँगे तो सहज ही कोई दे देता है। तो रसोई बनाने वाले ने दो के बजाय तीन बाटियाँ ऊपर से डाल दीं। तीन बाटियाँ देखते हुए भी लेने वाला उस वक्त कुछ नहीं बोला।
जब उसके झोले में तीन बाटियाँ पड़ गईं, तब आशीर्वाद देते हुए दो बाटी तो उसने झोले में रख लीं और कहा कि बस मेरे को दो ही काफी है। और तीसरी बाटी उठाकर उसने वापस दूर से ही उन बाटियों के संग्रह में फेंक दीं जहाँ तैयार रखी हुईं थी। नतीजा यह हुआ कि सारा खाना ही बेकार हो गया। और उस बाटी फेंकने वाले को बुलवाकर सारा सुपुर्द कर दिया गया। सभी को भूखे ही रह जाना पड़ा। बाद में पता चला कि वह बाटी माँगने वाला नट था। और उसकी यह तरकीब ही थी कि बना-बनाया पूरा खाना इस तरह सहज प्राप्त कर लें।
वह अपने हुनर में सफल हो गया। आराम से तैयार खाना सुलभ कर लिया। और बाबूजी की सारी मंडली को भूखे ही पटना कूच करना पड़ा। नट की उस चालाकी को स्मरण कर बाबूजी बहुत ही खिलखिला पड़ते थे। बात चूँकि बहुत पुरानी थी, मैंने सहसा प्रश्न कर लिया कि बाबूजी उस जमाने में तो यह बहुत स्वाभाविक हो गया, काश आज के जमाने में यह घटना घटी होती तो शायद ऐसे भू्खा तो नहीं लौटा जाता। बाबूजी ने कहा, शायद बाटी देने और फेंकने का अवसर ही नहीं आता, उन लोगों को साथ ही बिठलाकर खाना खिलवा दिया जाता।
सौजन्य से - पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास
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