नादानियाँ ताउम्र बहुत की हमने !
पत्थरों से भी उम्मीद-ए-वफ़ा की हमने !
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वो जिन्हें शऊर नहीं आदाब-ए-महफ़िल का,
दाबत-ए-बज़्म उन नामाकूलों को ही दी हमने !
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सूखे दरख्तों के फिर पत्ते हरे नहीं होते,
आरज़ू -ए-गुल बेवजह ही की हमने !
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वतन परस्ती से नहीं दूर तक नाता जिनका,
कमान-ए-वतन उन्हें खुद ही थी दी हमने !
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फिरकापरस्ती है शौक-ओ-शगल जिनका,
दरख्वास्त-ए-अमन खुद उनसे ही थी की हमने !
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क़ाबिज किये हर साख पे उल्लू खुद उनने,
निगरानी-ए-चमन जिन्हें कभी थी दी हमने !
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अब हक-ए-फ़रियाद से भी शर्मिन्दा उनसे,
गफलत में हुक्मरानी जिन्हें खुद थी दी हमने !
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