जियो कर्तव्य के अधिकार में
हर डूबने वाला ये सोचता है
गर सहारा मिलता तो निकल जाता
लहरों से टकराता डूबता घबराता
सामने ही शाहिल को नही देख पाता
मन के मंदिर में छिपे आराध्य को
नहीं खोज पाता हर कोई
पत्थरो में खोजे , जिसकी आत्मा सोई
मंदिरों में खोजे , भटका वैदेही
पर घट घट में बसे भगवान को
नहीं खोज पाता है कोई
डूब कर देखो ह्रदय की वेदना में
पाओगे ह्रदय की चेतना में
जो मौत से घबरा के जीना छोड़ दोगे
दर्द मुस्करा के पीना छोड़ दोगे
फिर ना कुछ मिलेगा दिल दुखेगा
उम्मीदे इन्सान को बलवान बनती है
कर्म इन्सान की पहचान करती है
कर्तव्य मिले या अधिकार
पर सत्य है कर्तव्य का संसार
डूबने के दर को छोड़ दो
वक़्त की धार से खुद को जोड़ दो
चल पड़ोगे तुम जिंदगी के साथ योगी
मिलता नहीं कुछ दर्द के रात में
जीवन है मुस्कराहट के सौगात में
जियो कर्तव्य के अधिकार में !
यह कविता क्यों ? जीवन की नाव कर्तव्य के पाल से बहती है न की लहरों पर अधिकार से
अरविन्द योगी
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