Jai Chitra Gupt JI

Jai Chitra Gupt JI
Global Kayasth Family -GKF

Friday, October 28, 2011

Some great Kayastha People

Some great Kayastha People

Spirituality
  • Swami Vivekananda
  • Sri Aurobindo
  • Maharishi Mahesh Yogi
  • Paramhansa Yogananda
  • Prabhupada Nirmala Neha 
Statesmen
  •   Dr. Rajendra Prasad- The first President of India.
  •   Netajee Subhash Chandra Bose
  •   Loknayak Jayaprakash Narayan
  •   Lal Bahadur Shastri
Politics 
  • Krishna Ballabh Sahay
  • Jyoti Basu
  • Yashwant Sinha
  • Biju Patnaik
  • Shiv Charan Mathur
  • Naveen Patnaik
  • Harish Chandra Mathur
  • Ravi Shankar Prasad
  • Acharya D P Ghosh
  • HH Zamindaar Babu Trilok Nath
  • Bal Thackeray

Science and technology

  • Jagadish Chandra Bose
  • Satyendra Nath Bose
  • Atul Kumar
  • Vinod Dham
  • Amar Bose, founder and chairman of Bose Corporation
  • Mriganka Sur 
Literature

  • Munshi Premchand
  • Dr. Vrindavan Lal Verma
  • Harivansh Rai Bachchan
  • Bhagwati Charan Verma
  • Nirmal Verma
  • Dharmavir Bharati 
  • Bimal Mitra 
  • Premendra Mitra 
  • Buddhadeva Bose 
  • Firaq Gorakhpuri 
  • Nirad Chaudhuri

Art and architecture

  •  Nandlal Bose
  • Somenath Hore
  • Ambarish Srivastava
  • Paresh Maity 
 Films, television and music
• Amitabh Bachchan
• Abhishek Bachchan
• Aadesh Srivastav
• Anil Biswas
• Gautam Ghose
• Deepti Bhatnagar
• Arundhati Roy
• Neetu Chandra
• Madhur Jaffrey
• Motilal
• Mukesh
• Neil Nitin Mukesh
• Shriya Saran
• Nutan
• Raju Srivastava
• Rhona Mitra
• Salil Chowdhury
• Shekhar Suman
• Sombhu Mitra
• Sonu Nigam
• Tanuja
• Utpal Dutt
• Shatrughan Sinha
• Chitragupt
• Anand-Milind
• Sharat Saxena
• Rahul Bose
• Bipasha Basu
• Koena Mitra
• Deepti Bhatnagar
• Anjan Srivastav
• Sonakshi Sinha
• Chitragupta
• Gulshan Rai
• Rajiv Rai
• Sushmita Sen

Historians

• Sir Jadunath Sarkar
• Banarsi Prasad Saxena
• Ashirwadi Lal Gyan Srivastava Sports
• Gopal Bose
• Shib Sunder Das
• Dipu Ghosh
• Raman Ghosh
• Subroto Guha
• Ramesh Saxena

Freedom fighters

• Ganesh Shankar Vidyarthi
• Bipin Chandra Pal
• Subhash Chandra Bose
• Khudiram Bose
• Rash Behari Bose
• Har Dayal
• Barin Ghosh

Journalists
 
• Tushar Kanti Ghosh
• Chandan Mitra
• Sagarika Ghose
• Harish Khare
• Deepak Parvatiyar

Administration

• Hon’ble Mr. Justice Bhuvneshwar Prasad Sinha (Former Chief Justice of India)
• Hon'ble Mr. Justice J.S. Verma (Former Chief Justice of India)
• Hon'ble Mr. Justice V.N. Khare (Former Chief Justice of India)
• Hon'ble Mr. Justice G.P. Mathur (Former Judge of Supreme Court of India)
• Basanta Kumar De, Commercial Traffic Manager of the B.N.R.
• Sir Sarat Kumar Ghosh, I.C.S., First Indian Chief Justice of Rajasthan
• S. K. Sinha (Lt.Gen (retd) Governor of Kashmir and Ex Governor of Assam)
• Shyam Saran (1970; IFS)
• Girish Chandra Saxena (IPS (Retd) and Ex Governor of Kashmir)
• Anami Narayan Roy (IPS & Ex-Commissioner of Police Mumbai)
• Anand Kumar (IPS & Ex-DG MP)

Thursday, October 27, 2011

OPINION POLL RESULT

OPINION POLL RESULT

 पिछले हफ्ते का ओपिनियन- पोल का प्रश्न था
आपका सबसे ज्यादा पसंदीदा त्यौहार कौन सा है?
इसके उत्तर इस प्रकार है:  
१. दिवाली ५३%
२. होली ४६%
३. जन्माष्टमी ३%
                                    
इस हफ्ते का प्रश्न है:
पढ़ने-लिखने के लिए आप कौन सी भाषा का प्रयोग ज्यादा करते है?
१. हिंदी 
२. अंग्रेजी 
 
 
                                    

चित्रगुप्त पूजा

 चित्रगुप्त पूजा

जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है क्योकि यही विधि का विधान है. विधि के इस विधान से स्वयं भगवान भी नहीं बच पाये और मृत्यु की गोद में उन्हें भी सोना पड़ा. चाहे भगवान राम हों, कृष्ण हों, बुध और जैन सभी को निश्चित समय पर पृथ्वी लोक आ त्याग करना पड़ता है. मृत्युपरान्त क्या होता है और जीवन से पहले क्या है यह एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई नहीं सुलझा सकता. लेकिन जैसा कि हमारे वेदों एवं पुराणों में लिखा और ऋषि मुनियों ने कहा है उसके अनुसार इस मृत्युलोक के उपर एक दिव्य लोक है जहां न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु का शोक वह लोक जीवन मृत्यु से परे है.
इस दिव्य लोक में देवताओं का निवास है और फिर उनसे भी Šৠपर विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक है. जीवात्मा जब अपने प्राप्त शरीर के कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों को जाता है. जो जीवात्मा विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक में स्थान पा जाता है उन्हें जीवन चक्र में आवागमन यानी जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है और वे ब्रह्म में विलीन हो जाता हैं अर्थात आत्मा परमात्मा से मिलकर परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है.
जो जीवात्मा कर्म बंधन में फंसकर पाप कर्म से दूषित हो जाता हैं उन्हें यमलोक जाना पड़ता है. मृत्यु काल में इन्हे आपने साथ ले जाने के लिए यमलोक से यमदूत आते हैं जिन्हें देखकर ये जीवात्मा कांप उठता है रोने लगता है परंतु दूत बड़ी निर्ममता से उन्हें बांध कर घसीटते हुए यमलोक ले जाते हैं. इन आत्माओं को यमदूत भयंकर कष्ट देते हैं और ले जाकर यमराज के समक्ष खड़ा कर देते हैं. इसी प्रकार की बहुत सी बातें गरूड़ पुराण में वर्णित है.
यमराज के दरवार में उस जीवात्मा के कर्मों का लेखा जोखा होता है. कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले भगवान हैं चित्रगुप्त. यही भगवान चित्रगुप्त जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवों के सभी कर्मों को अपनी पुस्तक में लिखते रहते हैं और जब जीवात्मा मृत्यु के पश्चात यमराज के समझ पहुचता है तो उनके कर्मों को एक एक कर सुनाते हैं और उन्हें अपने कर्मों के अनुसार क्रूर नर्क में भेज देते हैं.
भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं. इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये. इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया. इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था. धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ. इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा.

चित्रगुप्त पूजा विधि

भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और जल है. ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है. कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है. इस दिन भगवान चित्रगुप्त और यमराज की मूर्ति स्थापित करके अथवा उनकी तस्वीर रखकर श्रद्धा पूर्वक सभी प्रकार से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर एवं भांति भांति के पकवान, मिष्टान एवं नैवेद्य सहित इनकी पूजा करें. और फिर जाने अनजाने हुए अपराधों के लिए इनसे क्षमा याचना करें. यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है. इस संदर्भ में एक कथा का यहां उल्लेखनीय है.

चित्रगुप्त पूजा व्रत कथा

सराष्ट्र में एक राजा हुए जिनका नाम सदास था. राजा अधर्मी और पाप कर्म करने वाला था. इस राजा ने कभी को पुण्य का काम नहीं किया था. एक बार शिकार खेलते समय जंगल में भटक गया. वहां उन्हें एक ब्रह्मण दिखा जो पूजा कर रहे थे. राजा उत्सुकतावश ब्रह्ममण के समीप गया और उनसे पूछा कि यहां आप किनकी पूजा कर रहे हैं. ब्रह्मण ने कहा आज कार्तिक शुक्ल द्वितीया है इस दिन मैं यमराज और चित्रगुप्त महाराज की पूजा कर रहा हूं. इनकी पूजा नरक से मुक्ति प्रदान करने वाली है. राजा ने तब पूजा का विधान पूछकर वहीं चित्रगुप्त और यमराज की पूजा की.
काल की गति से एक दिन यमदूत राजा के प्राण लेने आ गये. दूत राजा की आत्मा को जंजीरों में बांधकर घसीटते हुए ले गये. लहुलुहान राजा यमराज के दरबार में जब पहुंचा तब चित्रगुप्त ने राजा के कर्मों की पुस्तिका खोली और कहा कि हे यमराज यूं तो यह राजा बड़ा ही पापी है इसने सदा पाप कर्म ही किए हैं परंतु इसने कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को हमारा और आपका व्रत पूजन किया है अत: इसके पाप कट गये हैं और अब इसे धर्मानुसार नरक नहीं भेजा जा सकता. इस प्रकार राजा को नरक से मुक्ति मिल गयी.

Saturday, October 22, 2011

चंदेलों के साथ इलाहाबाद आए थे कायस्थ

चंदेलों के साथ इलाहाबाद आए थे कायस्थ
कायस्थ शब्द का नाम आते ही हाथ में कलम लिए एक ऐसे समाज की छवि सामने आती है, जिसकी मेधा से समाज हमेशा दिशा पाता रहा है। गंगा-यमुना संस्कृति में ज्ञान की देवी सरस्वती के समागम से प्रयाग नगरी को धर्म और कर्म दोनों ही क्षेत्रों में खास दर्जा प्राप्त है। राजनीति का क्षेत्र हो या ब्यूरोक्रेट्स पूरे देश की नजर इस ओर होती है। इलाहाबाद को इस शीर्ष पर बैठाने में कलम के इन पुजारियों तथा ब्रह्मा और सरस्वती के मानस पुत्र चित्रगुप्त के वंशज कायस्थों की महती भूमिका रही है। मुंशी काली प्रसाद कुलभास्कर, लाल बहादुर शास्त्री, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा, अमिताभ बच्चन, न्यायमूर्ति वीएन खरे समेत अनेक महान विभूतियों  ने न केवल देश बल्कि पूरे विश्व को दिशा दिखाई। 28 अक्टूबर को यह समाज परंपरागत रूप से ईष्ट देव भगवान चित्रगुप्त की विधि-विधान से पूजा करेगा।
लांकि अपनी अधिक संख्या के कारण यहां की संस्कृति और राजनीति में प्रभावी दखल रखने वाले कायस्थों का संगम नगरी में कितना पुराना इतिहास है इसका कोई प्रमाणित इतिहास नहीं है। कायस्थ पाठशाला ट्रस्ट की स्थापना के बाद से ही इनका क्रमबद्ध लिखित इतिहास मिलता है लेकिन पुराने शिला लेखों से स्पष्ट है कि कायस्थ यहां के मूल निवासी नहीं हैं। अलग-अलग काल में राजा महाराजाओं के साथ वे यहां आए यहीं के होकर रह गए। अब तक मिले सबसे पुराने ऐतिहासिक प्रमाणों में कोरांव के मसमूद गांव में मिला ‘चंदेल लेख’ है। इसमें चंदेलों के साथ आए एक अफसर ‘श्रीवास्तव्य (श्रीवास्तव)’ का उल्लेख है। यह लेख 11वीं, 12वीं शताब्दी का है। जारी में भी इसी काल का ‘गढ़वाल लेख’ मिला है, जिसमें श्रीवास्तव का उल्लेख है। इविवि के प्राचीन इतिहास विभाग के प्रो. ओपी श्रीवास्तव ने बताया कि मथुरा में कुषाण काल से ही कायस्थों का वर्णन है लेकिन इलाहाबाद में सबसे पुराना प्रमाण चंदेलों के समय से ही मिलता है। हालांकि मुगलकाल में इलाहाबाद में कायस्थों का कई जगह उल्लेख मिलता है। मंत्री समेत प्रमुख पदों पर कायस्थ आसीन रहे हैं। मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग के प्रो. सुशील श्रीवास्तव का कहना है कि पहली शताब्दी में पटना में कायस्थों का कई जगहों पर उल्लेख मिलता है। हालांकि इसका कोई प्रणाम नहीं है लेकिन उस काल में भी उनके यहां होने की बात कही जाती रही है।
वर्तमान में कायस्थ पाठशाला कायस्थों की नुमाइंदी करने वाली सबसे बड़ी संस्था है, जिसके सदस्य पूरे विश्व में हैं। प्रवक्ता नयन श्रीवास्तव का कहना है कि पदाधिकारियों की त्याग और समर्पण की गौरवमयी परंपरा रही है। इनका निर्वाचन लोकतांत्रिक तरीके से मतदान के जरिए से होता है, जिसमें दूर देश के सदस्य भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। जौनपुर में जन्मे मुंशी काली प्रसाद कुलभास्कर ने 1873 में इसकी स्थापना की थी। वर्तमान में वरिष्ठ अधिवक्ता टीपी सिंह अध्यक्ष तथा कुमार नारायन महामंत्री हैं।

शिक्षा क्षेत्र में है महत्वपूर्ण स्थान
कलम आज भी कायस्थों की जीविका मुख्य साधन है। या यूं कहें की शिक्षा ग्रहण तथा उसके माध्यम से रोजी की तलाश, यही उनका पुस्तैनी रोजगार है। कायस्थ पाठशाला ने भी प्रयाग को शिक्षित करने पर ज्यादा जोर दिया। ट्रस्ट के तत्वावधान में कुलभास्कर आश्रम पीजी और इंटर कालेज, सीएमपी डिग्री कालेज, काली प्रसाद प्रशिक्षण महाविद्यालय, केपीयूसी, केपी इंटर कालेज, केपी गर्ल्स इंटर कालेज, केपी कान्वेंट जूनियर स्कूल, मुंशी हरिनंदन प्रसाद इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन एवं जर्नलिज्म, श्रीमती सुशीला देवी इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन डिजाइन समेत कई स्कूल कालेज संचालित हो रहे हैं। इनमें हजारों विद्यार्थी प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तथा व्यवसायिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई कर रहे हैं। 

यह लेख अमर उजाला समाचार पत्र के इलाहबाद संस्करण में छपा है 
सौजन्य : श्री विनीत श्रीवास्तव जी  

Thursday, October 20, 2011

LOKNAYAK JAYAPRAKASH NARAYAN

LOKNAYAK JAYAPRAKASH NARAYAN

Bharat Ratna Loknayak Jayaprakash Narayan (Devanāgar...ī: जयप्रकाश नारायण; October 11, 1902 - October 8, 1979), widely known as JP or Loknayak (leader of the masses), was an Indian independence activist and political leader, remembered especially for leading the opposition to Indira Gandhi in the 1970s and for giving a call for peaceful Total Revolution. His biography, Jayaprakash, was written by his nationalist friend and an eminent writer of Hindi literature, Ramavriksha Benipuri. In 1998, he was posthumously awarded the Bharat Ratna, India's highest civilian award, in recognition of his social work. Other awards include the Magsaysay award for Public Service in 1965. The airport of Patna is also named after him.

On April 19, 1954, Narayan announced in Gaya that he was dedicating his life (Jeevandan) to Vinoba Bhave's Sarvodaya movement and its Bhoodan campaign, which promoted distributing land to Harijans (untouchables). He gave up his land, set up an ashram in Hazaribagh, and worked towards uplifting the village.

In 1957, Narayan formally broke with the Praja Socialist Party in order to pursue lokniti [Polity of the people], as opposed to rajniti [Polity of the state]. By this time, Narayan had become convinced that lokniti should be non-partisan in order to build a consensus-based, classless, participatory democracy which he termed Sarvodaya. Narayan became an important figure in the India-wide network of Gandhian Sarvodaya workers.


Jayprakash Narayan was born in Sitabdiara village of Saran in Bihar. When he was a child, he had many pets. One day, his pigeon died and he did not eat food for two days afterward. His father Harsudayal was a junior official in the canal department of the State government and was often touring the region. Jayaprakash, called Baul affectionately, was left with his grandmother to study in Sitabdiara. There was no high school in the village, so Jayaprakash was sent to Patna to study in the Collegiate School. He excelled in school. His essay, "The present state of Hindi in Bihar", won a best essay award. He entered the Patna College on a Government scholarship.
[edit] Career

Jayaprakash Narayan joined Bihar Vidyapeeth  founded by Dr. Rajendra Prasad for motivating young meritorious youths and was among the first students of eminent Gandhian Dr. Anugrah Narayan Sinha , a close colleague of M. K. Gandhi who later became first Deputy Chief Minister cum Finance Minister of Bihar. In October, 1920 Jayaprakash married Prabhavati Devi, a independence activist in her own right and a staunch disciple of Kasturba Gandhi. Prabhavati was the daughter of lawyer and nationalist Brij Kishore Prasad, one of the first Gandhians in Bihar and one who played a major role in Gandhi's campaign in Champaran. She often held opinions which were not in agreement with JP's views, but Narayan respected her independence. On Gandhiji's invitation, she stayed at his Sabarmati Ashram while Jayaprakash continued his studies.

In 1922, Narayan went to the United States, where he worked to support his studies in political science, sociology and economics at the University of California, Berkeley, University of Iowa, University of Wisconsin–Madison and Ohio State University. He adopted Marxism while studying at the University of Wisconsin–Madison under sociologist Edward A. Ross; he was also deeply influenced by the writings of M. N. Roy. Financial constraints and his mother's health forced him to abandon his wish of earning a PhD. He became acquainted with Rajani Palme Dutt and other revolutionaries in London on his way back to India.

After returning to India, Narayan joined the Indian National Congress on the invitation of Jawaharlal Nehru in 1929; M. K. Gandhi became his mentor in the Congress. He shared the same house at kadam kuan in Patna with his close friend and nationalist Ganga Sharan Singh (Sinha) with whom he shared the most cordial and lasting friendship. During the Indian independence movement he was arrested, jailed, and tortured several times by the British. He won particular fame during the Quit India movement.

After being jailed in 1932 for civil disobedience against British rule, Narayan was imprisoned in Nasik Jail, where he met Ram Manohar Lohia, Minoo Masani, Achyut Patwardhan, Ashok Mehta, Yusuf Desai and other national leaders. After his release, the Congress Socialist Party, or (CSP), a left-wing group within the Congress, was formed with Acharya Narendra Deva as President and Narayan as General secretary.

During the Quit India Movement of 1942, when senior Congress leaders were arrested in the early stages, JP, Lohia and Basawon Singh (Sinha) were at the forefront of the agitations. Leaders such as Jayaprakash Narayan and Aruna Asaf Ali were described as "the political children of Gandhi but recent students of Karl Marx." He was also a great advocate of corelation "SAHJEEVAN"

Initially a defender of physical force, Narayan was won over to Gandhi's position on nonviolence and advocated the use of satyagrahas to achieve the ideals of democratic socialism. Furthermore, he became deeply disillusioned with the practical experience of socialism in Nehru's India.

After independence and the death of Mahatma Gandhi, Narayan, Acharya Narendra Dev and Basawon Singh (Sinha) led the CSP out of Congress to become the opposition Socialist Party, which later took the name Praja Socialist Party. Basawon Singh (Sinha) became the first leader of the opposition in the state and assembly of Bihar and Acharya Narendra Deva became the first leader of opposition in the state and assembly of U.P. His party is the first national party who distributed tickets on caste line. This was the point where Jayaprakash Narayan disagreed with the party principles and pursued Sarvodey and Lokniti.
Personal Interests
Emergency

When Indira Gandhi was found guilty of violating electoral laws by the Allahabad High Court, Narayan called for Indira to resign, and advocated a program of social transformation which he termed Sampoorna kraanti [Total Revolution]. Instead she proclaimed a national Emergency on the midnight of June 25, 1975, immediately after Narayan had called for the PM's resignation and had asked the military and the police to disregard unconstitutional and immoral orders; JP, opposition leaders, and dissenting members of her own party (the 'Young Turks') were arrested on that day.


Jayaprakash Narayan attracted a gathering of 100,000 people at the Ramlila Grounds and thunderously recited Rashtrakavi Ramdhari Singh 'Dinkar''s wonderfully evocative poetry: Singhasan Khaali Karo Ke Janata Aaati Hai.

Narayan was kept as detenu at Chandigarh even after he had asked for a month's parole for mobilising relief in areas of Bihar gravely affected by flood. His health suddenly deteriorated on October 24, and he was released on November 12; diagnosis at Jaslok Hospital, Bombay, revealed kidney failure; he would be on dialysis for the rest of his life.

"Free JP" campaign was launched in UK by Surur Hoda and chaired by Nobel Prize winner Noel- Baker for the release of Jayaprakash Narayan.


After Indira revoked the emergency on January 18, 1977 and announced elections, it was under JP's guidance that the Janata Party (a vehicle for the broad spectrum of the anti-Indira Gandhi opposition) was formed. The Janata Party was voted into power, and became the first non-Congress party to form a government at the Centre. On the call of Narayan many youngesters joined the J P movement.



Jayaprakash Narayan died on 8 October 1979; but a few months before that, in March 1979, his death was erroneously announced by the Indian prime minister to the parliament as he lay fighting for his life in Jaslok Hospital, causing a brief wave of national mourning, including the suspension of parliament and regular radio broadcasting, and closure of schools and shops. When he was told about the gaffe a few weeks later, he smiled.
Awards
Bharat Ratna, 1999
Rashtrabhushan Award of FIE Foundation , Ichalkaranji
 
 
BY- Praveen Shrivastav
EDITED BY- MONA(RICHA)



Wednesday, October 19, 2011

Dr. Rajendra Prasad

 
Dr. Rajendra Prasad
Born: December 3, 1884
Died: February 28, 1963
Achievements: First President of independent India; President of the Constituent Assembly; President of Congress in 1943 and 1939.

Dr. Rajendra Prasad was the first President of independent India. He was the President of the Constituent Assembly that drafted the Constitution. He had also served as a Cabinet Minister briefly in the first Government of... independent India. Dr. Rajendra Prasad was one of the foremost disciples of Gandhiji and he played a crucial role in Indian freedom struggle.

Dr. Rajendra Prasad was born on December 3, 1884 in Ziradei village in Siwan district of Bihar. His father's name was Mahadev Sahay and his mother's name was Kamleshwari Devi. Rajendra Prasad was youngest among his siblings. Mahadev Sahay was a Persian and Sanskrit language scholar. Dr. Rajendra Prasad was greatly attached to his mother and elder brother Mahendra.

At the age of five Rajendra Prasad was, according to the practice in the community to which he belonged, put under a Maulavi who taught him Persian. Later, he was taught Hindi and arithmetic. At the age of 12, Rajendra Prasad was married to Rajvanshi Devi.

Dr. Rajendra Prasad was a brilliant student. He stood first in the entrance examination to the University of Calcutta, and was awarded a monthly scholarship of Rs.30. He joined the famous Calcutta Presidency College in 1902. Here his teachers included the great scientist Jagdish Chandra Bose and the highly respected Prafulla Chandra Roy. Later on he switched from Science to Arts and completed his M.A. and Masters in Law. Meanwhile, in 1905, Doctor, Rajendra Prasad was initiated into the Swadeshi Movement by his elder brother Mahendra. He also joined the Dawn Society run by Satish Chandra Mukherjee, and Sister Nivedita.

The arrival of Mahatma Gandhi on the Indian national scene greatly influenced Dr. Rajendra Prasad. While Gandhiji was on a fact-finding mission in Champaran district of Bihar, he called on Rajendra Prasad to come to Champaran with volunteers. Dr. Rajendra Prasad was greatly impressed by the dedication, conviction and courage that Gandhiji displayed. Gandhiji's influence greatly altered Dr. Rajendra Prasad's outlook. He sought ways to simplify his life and reduced the number of servants he had to one. He started doing his daily chores such as sweeping the floor, washing the utensils-the tasks he had all along assumed others would do for him.

After coming into contact with Gandhiji, Dr. Rajendra Prasad, immersed himself fully into the freedom struggle. He played a active role during Non-Cooperation Movement. Dr. Rajendra Prasad was arrested in 1930 while participating in Salt Satyagraha. He was in jail when on 15 January 1934 a devastating earthquake struck Bihar. Rajendra Prasad was released from the jail two days later and he immediately set himself for the task of raising funds and organizing relief. The Viceroy also raised a fund for the purpose. However, while Rajendra Prasad's fund collected over Rs.3.8million, the Viceroy could only manage one-third of that amount. The way the relief was organized, it amply demonstrated the administrative acumen of Dr. Rajendra Prasad. Soon after this Dr Rajendra Prasad was elected as the President of the Bombay session of the Indian National Congress. He was elected as Congress President again in 1939 in the following the resignation of Netaji Subash Chandra Bose.

In July 1946, when the Constituent Assembly was established to frame the Constitution of India, Dr. Rajendra Prasad was elected its President. Two and a half years after independence, on January 26, 1950, the Constitution of independent India was ratified and Dr. Rajendra Prasad was elected as India's first President. As a President, he used his moderating influence silently and unobtrusively and set a healthy precedent for others to follow. During his tenure as President he visited many countries on missions of goodwill and sought to establish and nourish new relationships.

In 1962, after 12 years as President, Dr. Rajendra Prasad retired, and was subsequently awarded the Bharat Ratna, the nation's highest civilian award. He spent the last few months of his life in retirement at the Sadaqat Ashram in Patna. Dr. Rajendra Prasad died on February 28, 1963.
 
by- Praveen Srivastava

Tuesday, October 18, 2011

श्यामजी कृष्ण वर्मा

श्यामजी कृष्ण वर्मा

क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत की आजादी के संकल्प को गतिशील करने वाले एवं कई क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम.ए. और बैरिस्टर की उपाधियां मिलीं थीं। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था। उन्ह...ोने लन्दन में इण्डिया हाउस की स्थापना की जो इंगलैण्ड जाकर पढ़ने वालों के परस्पर मिलन एवं विविध विचार-विमर्श का केन्द्र था।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म गुजरात के मांडवी गांव में हुआ था। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मध्यप्रदेश में रतलाम और गुजरात में जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किए। मात्र बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था।
1897 में वे पुनः इंग्लैंड गए। 1905 में लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक "द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट" प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रांतिकारी छात्रों को लेकर इंडियन होम रूल सोसायटी की स्थापना की।
उस वक्त यह संस्था क्रांतिकारी छात्रों के जमावड़े के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई। क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा उनके शिष्यों में से थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। वीर सावरकर ने उनके मार्गदर्शन में लेखन कार्य किया था। 31 मार्च, 1933 को जेनेवा के अस्पताल में वे सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गए।
 
 द्वारा- श्री प्रवीण श्रीवास्तव

मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद





प्रेमचंद उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट के नाम से सम्मानित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हि...न्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी शती का साहित्य आगे चल सका। इसने आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित किया और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नीव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी का विकास संभव ही नहीं था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं, को प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की।
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवन यापन का अध्यापन से। १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी १९१० में इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे, जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद ,धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया।

द्वारा-  श्री प्रवीण श्रीवास्तव

Sunday, October 16, 2011

Opinion Poll Result

Opinion Poll  Result

Last week's question for opinion poll was: Do you support Anna Hazare's Anti Congress Drive in Elections? This poll started on October 10th, 2011 and ended on October 16th, 2011. the poll results reveal the thought of our community over this issue. 85% of voters have Answered "YES" and only 15% have voted in "NO". Thus it gives a clear message to Congress Party that the people want the "Janlokpal Bill" as proposed by Anna Hazare to be formulated and passed in the upcoming winter session of the Parliament. This is also visible in result of the By-Elections in Haryana where Congress Party Candidate was defeated. Beware Congress Party in U.P. Elections.

This Week's opinion poll Question is :
 आपका सबसे ज्यादा पसंदीदा त्यौहार कौन सा है?
१. दिवाली
२. होली
३. जन्माष्टमी
४. अन्य  

Jagdish Chandra Basu

  
Jagdish Chandra Basu

Jagadish Chandra Basu was born in to a Bengali Kayasth family  in 1858. He received his education first in India, until in 1880 he went to England to study medicine. Basu returned to India, taking up a post initially as officiating professor of physics at the Presidency College in Calcutta. Here he converted a small enclosure adjoining a bathroom into a laboratory. In 1895 Basu gave his first public demonstration of electro - magnetic waves, using them to ring a bell remotely and to explode some gunpowder."The first successful wireless signalling experiment by Marconi was not until May 1897. The 1895 public demonstration by Basu in Calcutta predates all these experiments.By about the end of the 19th century, the interests of Basu turned away from electromagnetic waves to response phenomena in plants. He retired from the Presidency College in 1915, but was appointed Professor Emeritus. Two years later the Basu Institute was founded. Basu was elected a Fellow of the Royal Society in 1920. He died in 1937.
 
The first Indian Scientist of international repute was Jagdishchandra Basu (1858-1937). After an education at St. Xavier’s College in Calcutta followed by Cambridge and London Universities, he became the first Indian Professor of Physics at Presidency College – at two-thirds the salary of British professors. He refused to accepts any salary, but continued to teach until the Government yielded. In 1917, after his retirement, he became the founder-director of the Bose Institute, on the model of the Royal Institution. He was knighted the sane year, and elected fellow of Royal Society in 1920.
 
Jagdishchandra began his research work when he was well in his thirties, in the face of callous indifference. Following Hertz’s discovery of electromagnetic waves. Basu became interested in the generation, reception and optical properties of these radiations in the unexplored range from 5 mm to 1 cm, the so-called microwaves. He experimented with the receiving properties of semi-conducting materials and worked on photoconductivity. In 1895 he gave a public lecture in the Town Hall in Calcutta during which he demonstrated for microwave signals across solid walls. This made him famous overnight, and the Bengal Government sent him on a nine-month tour of Europe. In December 1896 he repeated his demonstration at the royal Institution in London before an audience that included Lord Kelvin, one full year before Marconi’s celebrated demonstrations of wireless transmission of radio signals of much longer wavelengths that were commercially exploited. Basu field a patent in USA but let it laps.
 
Gradually, Basu became absorbed by the similar responses of organic and inert matter to centimeter-wavelength radiation. His poetic and philosophic bent of mind was kindled by ‘the watching of a roadside weed in Calcutta that turned the entire trend of my thought from life’. He devised ingenious instruments to magnify and record extremely small movements in plants. He was one of the first biophysicists.
 
We can absorb from the life of Sir Jagdish Chandra Bose, that to achieve the impossible goals the only thing required is the conviction and the perseverance with which we work to follow our dreams 

Thursday, October 13, 2011

Netaji Subhash Chandra Bose


               Netaji Subhash Chandra Bose


 
Netaji Subhash Chandra Bose was born on 23 January, 1897 in Cuttack (Orissa) to Janakinath Bose and Prabhavati Devi. His father, Janakinath Bose, was an affluent and successful lawyer in Cuttack and received the title of "Rai Bahadur". He, later became a member of the Bengal Legislative Council.

Subhash Chandra Bose was a very intelligent and sincere student but never had much interest in sports. He passed his B.A. in Philosophy from the Presidency College in Calcutta. He was strongly influenced by Swami Vivekananda's teachings and was known for his patriotic zeal as a student. He also adored Vivekananda as his spiritual Guru.

His father wanted him to become a civil servant and therefore, sent him to England to appear for the Indian Civil Service Examination. Bose was placed fourth with highest marks in English. But his urge for participating in the freedom movement was intense that in April 1921, Bose resigned from the coveted Indian Civil Service and came back to India. Soon, he left home to become an active member of India's independence movement. He, later joined the Indian National Congress, and also elected as the president of the party for two times.

Initially, Subhash Chandra Bose worked under the leadership of Chittaranjan Das, an active member of Congress in Calcutta. It was Chittaranjan Das, who along with Motilal Nehru, left Congress and founded the Swaraj Party in 1922. Subhash would regard Chittaranjan Das as his political guru. People began to recognize Bose by his name and associated him with the freedom movement. Bose had emerged as a popular youth leader. He was admired for his great skills in organization development.

Netaji Subhash Chandra Bose In 1928, during the Guwahati Session of the Congress, a difference in the opinion between the old and new members surfaced. The young leaders, as against the traditional leadership, wanted a "complete self-rule and without any compromise". The senior leaders were in favor of the "dominion status for India within the British rule".

The differences were between moderate Gandhi and aggressive Subhash Chandra Bose was swelling. The state was so intense that Subhash Chandra Bose had to defeat Pattabhi Sitaramayya, a presidential candidate, nominated by Gandhiji himself. Bose had won the election but without any second thought he resigned from the party. He, then formed the Forward Bloc in 1939.

During the Second World War in September, 1939, Subhash Chandra Bose decided to initiate a mass movement. He started uniting people from all over the country. There was a tremendous response to his call and the British promptly imprisoned him. In jail, he refused to accept food for around two weeks. When his health condition deteriorated, fearing violent reactions across the country, the authority put him under house-arrest.

During his house-arrest, in January, 1941, Subhash made a planned escape. He first went to Gomoh in Bihar and from there he went on to Peshawar (now, Pakistan). He finally reached Germany and met Hitler. In 1943, Bose left for south-east Asia and raised the army. The group was later named by Bose, as the Indian National Army (INA).

During his sojourn to England, he met with the leaders of British Labor Party and political thinkers including Clement Attlee, Arthur Greenwood, Harold Laski, G.D.H. Cole, and Sir Stafford Cripps. Bose also discuss with them about the future of India. It must also be noted that it was during the regime of the Labor Party (1945-1951), with Attlee as the Prime Minister, that India gained independence.

Although it was believed that Netaji Subhash Chandra Bose died in a plane crash, his body was never recovered. There have so many theories been put forward regarding his abrupt desertion. The government of India set up a number of committees to investigate the case and come out with truth.
The truth about Subhash Chandra Bose's death may never be revealed, but the truth that he was a true son of Mother India shall never change. He may or may not have died in the said plane crash ,but he is still alive in the hearts of millions of patriotic Indians. 
Jai hind!

Tuesday, October 11, 2011

स्वामी विवेकानंद



स्वामी विवेकानंद
युग आएंगे और युग चले जायेंगे किन्तु युगों की  शूलावाली पर चल कर जो चरण  आगे निकल गए है उनकी छाप अमिट है. उनके पद-चिन्हों पर चल कर हम भी अपने जीवन को गौरवशाली बना सकते है . ऐसे ही एक महापुरुष हैं स्वामी विवेकानंद जी. कायस्थ समाज को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत-वर्ष को उन पर गर्व है.

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था. माता पिता ने उनका नाम  नरेन्द्रनाथ दत्त रखा था..उनके पिता  श्री विश्वनाथ दत्त ,कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रतिनिधि थे. उनकी माता शिवभक्त थीं.
1881 में रामकृष्ण परमहंस जी को उन्होंने अपना गुरु बनाया. 1886 में रामकृष्ण की मृत्यु  तक विवेकानंद जी  रामकृष्ण परमहंस के साथ रहे. रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेन्द्र को अशांत,व्याकुल और अधीर व्यक्ति से एक शांत और आनंद मूर्ति में बदल दिया, जिसे ईश्वर के सत्य रूप का ज्ञान हो. 1886 में रामकृष्ण की मृत्यु  हो गई.

1888 से 1892 तक स्वामी विवेकानंद भारत के अलग-अलग भागों में घूमते रहे और 31 मई 1893 में शिकागो के लिए रवाना हो गए. 11 सितम्बर को शिकागो के कला केंद्र में धर्म संसद प्रारंभ हुई. पाश्चात्य देशो में प्रायः भाषण की शुरुआत "Ladies and Gentlemen"  से की जाती है किन्तु जब विवेकानंद की बोलने की बारी आई तो उन्होंने माँ सरस्वती का स्मरण करते हुए अपना भाषण शुरू किया. उन्होंने भाषण की शुरुआत  ‘Brothers and Sisters of America...’ के संबोधन शुरू की. इसका ऐसा असर हुआ कि  2 मिनट तक 7 हजार लोग उनके लिए तालियाँ बजाते रहे.पूरा सभागार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया था.
विवेकानंद के विवेकशील भाषण ने ही धर्म संसद को  हिला कर रख दिया. चारों तरफ विवेकानंद की प्रशंसा होने लगी. अमेरिकी अख़बारों ने विवेकानंद को “धर्म संसद” की सबसे बड़ी हस्ती के रूप में सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति बताया.  उन्होंने संसद में कई बार हिन्दू धर्म और बौध मत पर व्याख्यान दिया.27 सितम्बर 1893 को संसद समाप्त हो गई. इसके बाद वे दो वर्षों तक पूर्वी और मध्य अमेरिका, बोस्टन, शिकागो, न्यूयार्क, आदि जगहों पर उपदेश देते रहे. 1895 और 1896 में उन्होंने अमेरिका और इंग्लैंड में उपदेश दिए.

1897 में वे भारत वापस आ गए और उन्होंने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. ये उनकी शिक्षा, संस्कृति, चिकित्सा और राहत कार्य द्वारा धार्मिक सामाजिक आन्दोलन की शुरुआत थी. उसके बाद उन्होंने लोगों के उद्धार के लिए अनेक कार्य किए.उनके अनुसार हर आत्मा पवित्र है. हमारा लक्ष्य बाहरी और भीतरी रूप से इस आत्मा कि पवित्रता को बनाये रखना है.विवेकानंद के अनुसार, सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा जो उन्होंने अपने गुरु से ग्रहण कि हर व्यक्ति भगवन का रूप है, किसी गरीब और जरुरतमंद की सेवा भगवन की सेवा के समान है.
स्वामी विवेकानंद लगातार काम करने के चलते बीमार होते जा रहे थे.   04 जुलाई 1902 के दिन स्वामी विवेकानंद चिर समाधी में लीन हो गए. इस विश्व को प्रकाश देकर अपना शरीर छोड़ देने के बाद वे स्थायी प्रकाशपुंज बन गए जिससे पूरी दुनिया हमेशा प्रकाशित होती रहेगी.
दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग उनसे प्रभावित हुए और आज भी उनसे प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं. सी राजगोपालाचारी के अनुसार  “स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा की”. सुभाष चन्द्र बोस के कहा  “विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता हैं”. महात्मा गाँधी मानते थे कि विवेकानंद ने उनके देशप्रेम को हजार गुना कर दिया.
आज हम अन्ना हजारे को अपना मसीहा मानते है. स्वयं अन्ना हज़ारे जी ने अपने साक्षात्कार में खुलासा किया कि उनके जीवन के प्रेरणा स्रोत स्वामी विवेकानंद जी है. उन्होंने बताया कि विवेकानंद जी के आदर्शो पर चल कर ही उन्होंने समाज और देश के प्रति अपना जीवन समर्पित किया है. इस प्रकार हम देख सकते है कि विवेकानंद जी के विचार  भारत के लिए वरदान स्वरुप है जिन पर चल कर एक साधारण मनुष्य भी महान कार्य कर सकता है. यदि एक व्यक्ति विवेकानंद जी के विचार अपना कर इतना सब कुछ कर सकता है तो जरा सोचिये कि यदि समाज के सभी लोग विवेकानंद जी के आदर्शो को अपने जीवन में उतर ले तो इस समाज, देश और संसार कि काया पलट हो जाये. 

स्वामी विवेकानंद के योगदान के लिए उन्हें युगों-युगों  तक याद किया जायेगा.

कायस्थों की उत्पत्ति की पौराणिक कहानी



कायस्थों की उत्पत्ति की पौराणिक कहानी

ब्रम्हा
जी ने जब सृष्टि की रचना की तो उनके सिर , भुजाओं , जंघा तथा पैर के तलवों से उत्पन्न  चार वर्ण बनेब्रम्हा जी ने धर्मराज को कार्य सौंपा की तीनों लोकों में जितने भी जीव हैं उनके जन्म-मृत्यु, पाप-पुण्य, मोक्ष आदि का पूरा लेखा जोखा रखोधर्मराज कुछ समय के बाद परेशान होकर ब्रम्हा के पास गए और बोले- " प्रभु, चौरासी लाख योनियों के जीवों के पाप पुण्य के लेखा-जोखा मुझसे अकेले नहीं होता, मेरी समस्या का समाधान कीजियेउनकी बात सुन ब्रम्हा जी चिंता में पड़ गए। यम की इस अवस्था को देख, ब्रम्हा जी की काया से एक पुरुष कलम-दवात लेकर उनके समक्ष प्रकट हुआ। ब्रह्मा जी ने कहा की "वत्स तुम अब तक  मेरी काया(चित्र ) में छुपे (गुप्त ) थे अतः तुम्हारा नाम चित्रगुप्त है"  काया से प्रकट होने के कारण उन्हें कायस्थ कहा गया मनु स्मृति के अनुसार ब्रम्हा जी ने चित्रगुप्त महाराज को धर्मराज के साथ यमलोक में पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार मोक्ष आदि के निर्धारण का कार्य सौंपा। इसीलिए कायस्थ लोग पारंपरिक तौर पर लेखांकन [ अकाऊंटिंग ], तथा साहित्यिक गतिविधियों से ज्यादा जुड़े हुए होते हैं। कलम के धनी कायस्थ लोग दिवाली के बाद द्वितीया के दिन चित्र गुप्त जी का जन्मदिन मानते है जिसमे कलम-दवात की पूजा करते हैं। बाकी हिन्दू समाज के लोग उस दिन भाई दूज मानते है क्योकि यमराज चित्रगुप्त जी को अपना काम सौंप कर अपनी बहन यमुना से मिलने गए थे 

पद्म पुराण तथा भविष्य पुराण के अनुसार , चित्रगुप्त महाराज की दो पत्नियों से बारह संतानें हुई । पहली पत्नी शोभावती से भटनागर, माथुर, सक्सेना , श्रीवास्तव तथा दूसरी पत्नी माता नंदिनी से अम्बष्ट , अष्ठाना ,निगम , वाल्मीकि, गौड़, कर्ण , कुलश्रेष्ठ , एवं सुरजद्वाज नामक आठ संतानें पैदा हुईं।

कायस्थों की बारह उपजातियां जब भारत के विभिन्न प्रान्तों में फैलने लगे , तो उन्होंने कुछ स्थानीय नाम अपना लिए। जैसे बिहार के कर्ण कायस्थ, आसाम के बरुआ, उड़ीसा के पटनायक और सैकिया , पश्चिम बंगाल के बोस , बासु, मित्रा , घोष, सेन, सान्याल तथा महाराष्ट्र में प्रभु। कुछ लोग लाल, प्रसाद, दयाल तथा नारायण भी लिखने लगे
इस प्रकार अनेक उपनाम बन गए

इसी श्रंखला में प्रतिदिन कायस्थ समाज के एक चर्चित व्यक्तित्व की चर्चा की जाएगी
। पाठकों के विचार एवं सुझाव सादर आमंत्रित हैं